दोआबा, अंक - 16


..अपनी मौत से
हम सब को राजेन्द्र यादव ने
एक गहरे सन्नाटे  में डाल दिया

इस सन्नाटे और कसक
से उबरने में वक्त लगेगा ही
अर्से तक यह एहसास भी
बना रहेगा कि
सिर्फ़ राजेन्द्र यादव में ही
राजेन्द्र यादव बनने की ताकत थी

’दोआबा’ का यह अंक
उनकी इसी ताकत को समर्पित है..

अंक में-
अपनी बात
आत्मगत के अंतर्गत महताब अली - गाड़ीवान का बेटा
काव्य-नाटिका में अनुज लुगुन - रक्त-बीज

दरीचा
अनुपम मिश्र : दुनिया का खेला
निरंजन देव शर्मा : सफ़रनामा
मंगलमूर्त्ति : अब न वे दिन बहुरेंगे न वे लोग

कविता
राजी सेठ
किरण अग्रवाल
इला कुमार
भरत भूषण आर्य

आलेख / समीक्षा / संवाद
मधुरेश : समीक्षा की रचना प्रक्रिया
सुशील सिद्धार्थ : संवादधर्मिता साक्षात्कार का सौंदर्य है
ब्रज मोहन सिंह : कठिन दौर में कविता की चुनौतियां
शहंशाह आलम : अनवरत विरोध की कविताएं..

 

फांसी देने का मुझे, अजब निकाला ढंग।
कागज की तलवार दे, भेजा करने जंग॥

कार नहीं, नौकर नहीं, पास न एक मकान।
लगता है उसके अभी, पास बचा ईमान ॥
 
अंक में..

दोआबा, अंक- 15



इस अंक में :

शंभु गुप्त : शब्दों के पीलेपन का अतिक्रमण
रामधारी सिंह दिवाकर : कथा-डायरी का अगला पड़ाव
प्रेम कुमार : मर्मस्पर्शी, जीवंत सुरुचिसंपन्न
अवध बिहारी पाठक : ज़ख़्मों का हलफ़िया बयान
श्यासुंदर घोष : जाबिर हुसेन का कथा-शिल्प
पल्लव : जिंदा होने का सबूत देती कथाएं
मनोज मोहन : कल्पना और यथार्थ का मिटता फ़र्क
कल्पतरु एक्सप्रेस : कथा के शिल्प में भूमिगत डायरी
अमरनाथ : बेचैन करने वाली डायरी

दरीचा

चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी : युग बदला : तीन

कहानी

मनमोहन सरल : जमी हुई झील
मीरा कांत : लंबी औरत
श्यामसुंदर घोष : सर्द रात और सख़्त जात
दिनेशचंद्र झा ’प्रवासी’ : आग की वैतरणी
सत्यम श्रीवास्तव : जस्टिस
विनोद कुमार : अश्लील पन्ने डायरी के

कविता

कर्मानंद आर्य की बारह कविताएं,
विस्वावा शिंबोर्स्का की पांच कविताएं
अशोक सिंह की चार कविताएं

बहस

विनोद रिंगानिया / जीतेन्द्र वर्मा / उर्मिला शिरीष / मनोज मोहन


­  टाइम्स आफ़ इंडिया में कांचा इलैया ने स्वाती माथुर से अपनी बातचीत में कहा - ’दलित समाज में बौद्धिक चेतना का विकास बहुत बाद की घटना है। इसके लिए जिस परिष्कृत शिक्षण की जरूरत है, उसका हमारी राजनीतिक धारा में नितांत अभाव है। उदाहरण के लिए, कर्पूरी ठाकुर जैसा एक लगभग निरक्षर नाई (ऎन आलमोस्ट इल्लिट्रेट बार्बर) बिहार का मुख्यमंत्री बन गया था.।
’दोआबा’ के ताज़ा अंक में संपादक जाबिर हुसेन का, कांचा इलैया की इस टिप्पणी पर वैचारिक प्रतिवाद...

दोआबा, अंक- 14.



बदलते चेहरों का कोलाज

अवधेश अमन: इन दिनों
उपेन्द्र महारथी: एक कलाकार की अविराम यात्रा
महासुंदरी देवी: रेखाओं का विज्ञान
आनंदी प्रसाद बादल: स्त्रियों के चेहरे और मछली-सी आंखें
कई-कई चेहरे: स्त्री कलाकारों की सृजनशीलता
संजय कुमार: ऊर्जस्वी कला
शैलेंद्र: छायाकार की आंखें
अवधेश मिश्र
पाण्डेय सुरेन्द्र: परंपरा का विस्तार
राजीव नयन: सकारात्मक अंकन की प्रक्रिया
प्रयाग शुक्ल: नरेन्द्र के नये चित्र
विवेक फडनीस
जयशंकर मिश्र: प्रयोग की दिशा
भुवनेश्वर भास्कर
अमरेश कुमार: आकार की खोज
मिलन दास: पल-पल का अहसास
कैलास दहिया
भुवनेश्वर भास्कर: कला से एकाकार
रंजन राय
सुमन प्रसाद मेहता: रेखाओं का खेल
अनिल कुमार सिन्हा
अशोक तिवारी: संवेदना की आंच
विजय चन्द्र प्रसाद: तकनीक का मर्म
मनोज कुमार बच्चन
सचिन्द्र नााथ झा: स्मृति में गांव
अनिल बिहारी: दर्शकों से संवाद
संतोष सुमन
अनिल कुमार सिन्हा: अनुभूति का दायरा
दिनेश दिवाकर
राजेश कुमार राम: लकीरों में व्यंग्य
उदय पंडित: जीवों का रिश्ता
अशोक कुमार सिंह
संजीव किशोर गौतम: रेखाओं में सादगी

दरीचा
अशोक कुमार प्रियदर्शी: युग बदला

कविता
सविता सिंह / किरण अग्रवाल / कुमार प्रशांत

कहानी
मनमोहन सरल / मंगलमूर्ति

बहस/समीक्षा/संवाद
खतरों से दोचार हिंदी: अमरनाथ
सच का कोई नेपथ्य नहीं होता: अवध बिहारी पाठक
सूर्यबाला / मुशरर्फ़ आलम जौकी/ कुमार प्रशांत / आबिद सुरती / कनक / मृदुला शर्मा / कुमार दिनेश प्रियमन

वीथिका

- संपादक: जाबिर हुसेन
247 एम आई जी, लोहियानगर
पटना- 800 020,
फोन - 0612 2354077.