दोआबा : अंक 12,



जिंदा होने का सबूत: जाबिर हुसेन

‘कितने गहरे हैं जख़्म ?’
नुकीले जूते पहने आदमी ने कारिंदों से पूछा ।
‘इतने कि हम नाप नहीं सकते।’
‘छोड़ देने पर ज़ख़्म भर तो नहीं जायेंगे?’
वो पूरी तरह मुतमइन होना चाहता था।
‘लगता नहीं, पर आप कहें तो हम इसे कुछ और गहरा कर सकते हैं।’

आंखों का इशारा पाकर वो बेहोश,  नीममुर्दा आदमी के सीने पर अपने ज़हरीले असलहों का दोबारा इस्तमाल करने लगे।
बदन से रिसने वाला खून फिर से धार बनकर गीली ज़मीन पर जज़्ब होने लगा।
एक पल के लिए बेहोश आदमी के जिस्म में थरथराहट-सी पैदा हुई।
फिर जैसे सब कुछ ठहर गया हो।

आसमान से अंगारे बरस रहे थे।
जब कि ये अंगारों के बरसने का मौसम नहीं था।
गलियां सुनसान थीं। राहगीर रास्ता भूल बैठा थे।
पेड़ों की शाख़े साकित थीं।
पत्तियां अपनी हरियाली खो रही थीं।

गली के आखिरी कोने पर हज़ार बरस पुरानी हवेली के खंडहर की एक खिड़की  न मालूम कबसे नीम-वा थी। एक साया था कि खिड़की पर लगी लोहे की तीलियां पकड़े गली की तरफ़ नज़रें जमाये था।
अपनी हथेलियां उसने दुआ के अंदाज़ में आसमान की तरफ़ फैला रखी थीं।

नुक़ीले जूतों वाला आदमी अब पूरी तरह मुतमइन था।
गली के रेतीले पत्थरों के बीच, बेहोश आदमी के जिस्म में कोई हरकत नहीं थी।

‘है कोई इस आदमी के जिंदा होने का सबूत बाक़ी?’
‘नहीं!’
चारों तरफ़ से कारिंदों की आवाज़... आवाज़ नहीं, गूंज उभरी।

हज़ार बरस पुरानी हवेली के खंडहर की खिड़की में लोहे की शिकस्ता तीलियां पकड़े कोई साया अब भी दुआइया अंदाज में अपनी हथेलियां आसमान की तरफ़ फैलाये खड़ा था।

‘अब... इसे खाई में फेक आओ।’
नुकीले जूतों से आवाज़ आई।

एक ने लाश अकेले अपने कंधे पर उठाई और खाई की तरफ बढ़ा।
चार कदम ही चला होगा शायद कि उसकी चीख़ सुनाई पड़ी।
लाश में थरथराहट के साथ हरकत हुई।
जख़्मी हाथ की उंगलियों में दबी क़लम की नोक ने लाश उठाने वाले की गर्दन में गहरा जख़्म़ कर दिया था।
खून की लकीरें उसकी नीम-फ़ौजी पोशाक को गीला कर रही थीं।

हज़ार बरस पुरानी हवेली के खंडहर की खिड़की पर कोई साया मौजूद नहीं था!
                           
                                                                                                             - जाबिर हुसेन

इस अंक में:
दरीचा: मनमोहन सरल, रंजना श्रीवास्तव एवं सपना चमडि़या।
कविता: शहंशाह आलम, अमित कल्ला एवं मनोज मोहन।
कहानी: अजित कुमार व मंगलमूर्त्ति।
बहस: राजेश राहुल
विशेष: चर्चित लेखिका नासिरा शर्मा का सम्पूर्ण उपन्यास ‘अजनबी जज़ीरा’ पूरे सौ पेज़ में...

संपादक: जाबिर हुसेन,
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