दोआबा, अंक - 16


..अपनी मौत से
हम सब को राजेन्द्र यादव ने
एक गहरे सन्नाटे  में डाल दिया

इस सन्नाटे और कसक
से उबरने में वक्त लगेगा ही
अर्से तक यह एहसास भी
बना रहेगा कि
सिर्फ़ राजेन्द्र यादव में ही
राजेन्द्र यादव बनने की ताकत थी

’दोआबा’ का यह अंक
उनकी इसी ताकत को समर्पित है..

अंक में-
अपनी बात
आत्मगत के अंतर्गत महताब अली - गाड़ीवान का बेटा
काव्य-नाटिका में अनुज लुगुन - रक्त-बीज

दरीचा
अनुपम मिश्र : दुनिया का खेला
निरंजन देव शर्मा : सफ़रनामा
मंगलमूर्त्ति : अब न वे दिन बहुरेंगे न वे लोग

कविता
राजी सेठ
किरण अग्रवाल
इला कुमार
भरत भूषण आर्य

आलेख / समीक्षा / संवाद
मधुरेश : समीक्षा की रचना प्रक्रिया
सुशील सिद्धार्थ : संवादधर्मिता साक्षात्कार का सौंदर्य है
ब्रज मोहन सिंह : कठिन दौर में कविता की चुनौतियां
शहंशाह आलम : अनवरत विरोध की कविताएं..

 

फांसी देने का मुझे, अजब निकाला ढंग।
कागज की तलवार दे, भेजा करने जंग॥

कार नहीं, नौकर नहीं, पास न एक मकान।
लगता है उसके अभी, पास बचा ईमान ॥
 
अंक में..