जी, सारा, सारा जोन्स। मैं गोआ से आती हूं....




अपनी बात
ई छोटी-बड़ी मशीनों का सावधनीपूर्वक इस्तेमाल करके, चेहरे पर संतोष की रेखाएं खींचते, डा लालवानी ने कहा - आपकी आंखें बिल्कुल ठीक हैं, पावर लगभग पहले जैसा है। इतने वर्षों में, कोई ख़ास प़फर्क़ नहीं आया। तीन-चार महीने पर, दोबारा ज़रूर दिखा लेंगे।
डा लालवानी के कमरे से बाहर आते वक़्त मेरे दिमाग़ में एक ही वाक्य जैसे गूंज रहा हो। ठीक हैं मेरी आंखें तो पिफर इन आंखों के पर्दों पर परछाइयां-सी क्यों छाई रहती हैं, हर वक़्त। मैं इन परछाइयों के परे कुछ देख क्यों नहीं पाता! हर वक़्त, इन परछाइयों की ओट में रेल की पटरियां-सी क्यों बिछी नज़र आती हैं। और पिफर, इन पटरियों पर ख़ून के चकत्ते-से क्यों उभरते दिखाई देते हैं। मेरी आंखें ख़ून के इन चकत्तों से पूरी तरह ढंक क्यों जाती है! फिर इन चकत्तों से आनेवाली ताज़ा ख़ून की बू मेरी नाक पर क्यों बिछ जाती है।
डा लालवानी! आप कहते हैं, मेरी आंखें बिल्कुल ठीक हैं, इन्हें कुछ नहीं हुआ। इनके विज़न में कोई प़फर्क़ नहीं आया। ज़रूर ही, डा लालवानी, आपकी मशीनें आपको धेखा नहीं दे सकतीं। खुद आपकी बारीक आंखें इतनी तजुर्बेकार हैं कि मेरी आंखों में आई हल्की-सी तब्दीली भी आपसे छिप नहीं सकती। लेकिन ऐसा क्यों है कि आप इन तजुर्बेकार आंखों से मेरी आंखों पर उभरने वाली परछाइयां नहीं देख पाते। और इन पर बिछी रेल की पटरियां, जिन पर ताज़ा ख़ून के चकत्ते पैफल गए हैं, आपकी आंखों से ओझल रहती हैं। ऐसा क्यों है, डा लालवानी! मुझे अपने किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता। डाक्टर मुझे ‘शुक्रिया’ कहकर मेज़ के दूसरे किनारे खड़े अपने किसी सहयोगी की तरपफ़ मुख़ातिब हो जाते हैं। मैं दरवाज़े की ओर बढ़ता हूं। रेल की पटरियां, ख़ून के चकत्ते मेरा पीछा करते हैं। पोर्टिको तक, दोनों मेरे साथ-साथ आते हैं। कार में बैठते ही, मैंने अपनी दोनों आंखें बंद कर ली हैं। रेल की पटरियां, और उन पर, दूर-दूर, पैफले ताज़ा ख़ून के चकत्ते मेरी बंद आंखों में और भी रौशन होकर उभर रहे हैं!
हवाई जहाज़ की पहली क़तार में, खिड़की की तरफ बैठते ही, मैंने अपने फोलियो बैग से वह पांडुलिपि निकाल ली है। तभी, सीट-बेल्ट बांध् लेने की अपील के साथ, पूरे जहाज़ में पैफली तेज़ रोशनी अचानक म(िम होकर अंध्ेरे में बदल जाती है। मैंने कैबिन की तरप़फ देखा। मेरे हाथ में पड़ी पांडुलिपि अंध्ेरे का शिकार हो गई है। आंखें जब अंध्ेरे की अभ्यस्त हुईं, तो मैंने उफपर हाथ बढ़ाकर रीडिंग लाइट जलानी चाही। सीट-बेल्ट कुछ ज़्यादा ही कस गई है। कैबिन-क्रू ने मेरी सहायता की और जहाज़ की छत से टंगे दोनों रौशनी के बुंदे पांडुलिपि पर केंद्रित हो गए।
आज मैंने फलों के जूस नहीं लिए। स्नैक्स की ट्रे आई। मेरे आगे छोटी मेज़ पर फैली पांडुलिपि के पन्ने देखकर ट्रे लौट गई। चाय-काफी, मेरे लिए आज सब अजनबी हो गए हैं। बाज़्ाू की सीट ख़ाली है, इसलिए मैं पांडुलिपि के पन्ने, बारी-बारी, उसपर सरका रहा हूं।
यह मेरा इस पांडुलिपि का दूसरा पाठ है। आंसुओं से भीगी, ताज़ा ख़ून में डूबी पांडुलिपि का दूसरा पाठ! यकायक पांडुलिपि के पन्नों से रेल के गड़गड़ाने की आवाज़ उभरने लगी। मुझे महसूस हुआ, जैसे यकायक मेरे सिर से रेल के कई-कई डब्बे, एक-साथ, गुज़र गए हों, तेज़ आवाज़ के साथ। मैंने घबराकर खिड़की के बाहर देखा। आसमान पर शाम का ध्ुंध्लका पूरी तरह छा गया है, और डूबने वाले सूरज की सुनहरी किरणें दम तोड़ रही हैं। आसमान साप़फ है, बिल्कुल साप़फ। दूर-दूर तक, बादल नहीं हंै, बादलों की परछाइयां तक नहीं हैं।
परछाइयों से याद आया। मेरी आंखों पर छाई रेल की पटरियों की परछाइयां, और उन पर ताज़ा ख़ून के चकत्ते! चकत्ते और परछाइयां, जिन्हें डा लालवानी की बारीक निगाहें नहीं देख पाई हैं। लेकिन, जो लगातार मेरी आंखों पर छाई हैं! हवाई जहाज़ काफी बुलंदी पर उड़ रहा है। मेरे हाथों में पांडुलिपि के पन्ने उन परिंदों की तरह फड़फड़ा रहे हैं, जिन्हें अभी-अभी किसी तजुर्बेकार शिकारी ने मौत की नींद सुला दिया है। परिंदों के जिस्म से ख़ून के क़तरे टपक रहे हैं। ताज़ा ख़ून के क़तरे!
मुमकिन है, ये परिंदे बेजान होकर आसमान की उंफचाइयों पर उड़ने वाले जहाज़ से नीचे गिर पड़े हों, और उनके जिस्म से टपकने वाले ताज़ा खून के क़तरे किसी बंजर ज़मीन पर उगी रेल की पटरियों पर पैफल गए हों।
ताज़ा खून के चकत्ते-जैसे!
बंजर ज़मीन पर उगी रेल की पटरियां और उन पर फैले ताज़ा खून के चकत्ते! मेरी आंखों पर छाई परछाइयों की फ़िज़ा शायद इन दोनों ने मिलकर तैयार की हो! लेकिन ये फिज़ा अभी मुकम्मल कहां हुई! अभी इसमें एक ज़िंदा जिस्म और एक ज़िंदा रूह की बेताबियों का रंग घुलना बाक़ी है। तभी तो ये फिज़ा शफक़ की रंगीनियों का अक्स बन पायेगी! अभी कहां! अभी एक जिंदा जिस्म की बोटियों से इस फ़िज़ा की दस्तारबंदी होना बाफी है!
मैं पांडुलिपि के आख़िरी पन्ने पर हूं। हवाई जहाज़ का मेरा यह सफर भी शायद अपनी आख़िरी छलांग ले रहा है। मेरी आंखों पर, आसमान के आंगन में उगे सितारों की तरह, किसी बंजर ज़मीन पर उगी रेल की पटरियां और ताज़ा खून के चकत्ते उभर आये हैं। पटरियां और चकत्ते!
हवाई जहाज़ ज़मीन को सजदा कर रहा है। कैबिन-क्रू ने सारी रौशनियां जला दी हैं। जहाज़ का अंधेरा मुंह छिपाने की कोशिश में है। लेकिन, मेरी आंखों पर छाई परछाइयां बरक़रार हैं। परछाइयां, जिनमें रेल की पटरियां हैं, ताज़ा खून के चकत्ते हैं, और ज़िंदा जिस्म की, कई-कई टुकड़ों में बंटी, खुशबुएं हैं।
जहाज़ की रफ्तार एकदम से थम गई है। कोई ख़ूबसूरत आवाज़ यात्रियों से विनम्र अनुरोध कर रही है - कृपया अगली क़तार के लोगों को पहले उतरने दें।
मैं सीढ़ियां उतरने को तैयार हूं कि कैबिन-क्रू ने आवाज़ दी - सर, आपके पेपर्स।
मैंने देखा, उसके हाथों में पांडुलिपि के बिखरे पन्ने थे। जो मैं बाज़्ाू की सीट पर छोड़ आया था।
शुक्रिया!
क्या मैं तुम्हारा नाम जान सकता हूं ?
जी, मैं सारा हूं।
सारा!
जी, सारा, सारा जोन्स। मैं गोआ से आती हूं।
मेरी आंखों में छाई परछाइयां अचानक एक बर्फीली धुंध में बदल गई हैं।
बर्फीली धुंध! रेल की बेजान पटरियां! ताज़ा खून के चकत्ते!

-जाबिर हुसेन

मैदान मेरा हौसला है, आंगन मेरी ख़्वाहिश - सारा शगुफ़्ता की रचनाशीलता को समर्पित ‘दोआबा’ का यह अंक

                                                                        
                                                                         मैं टूटे चांद को सुबह तक गंवा बैठी हूं
इस रात कोई काला फूल खिलेगा
मैं अनगिनत आंखों से टूट गिरी हूं
मेरा लहू कंकर कंकर हुआ
मेरे पहले क़दम की ख़ाहिश दूसरा क़दम नहीं
मेरे ख़ाक होने की ख़ाहिश मिटी नहीं

ऐ मेरे पालने वाले ख़ुदा
मेरा दुख नींद नहीं, तेरा जाग जाना है
कौन मेरी ख़ामोशी पे बैन करता है
कौन मेरे सुख के कंकर aचुनता है
ये रोज़, ये रोज़ कौन मर जाता है
-सारा


इस अंक के रचनाकार-

मंगलेश डबराल ,शाहिद  अनवर ,विष्णु नागर, किरण अग्रवाल, विजय शंकर, राजेन्द्र नागदेव, भारत भूषण आर्य, आर चेतनक्रांति, विपिन चैधरी, अवधेश अमन, फरीद खां, मधुरेश, मनमोहन  सरल,  राबिन शा  पुष्प, ज्ञानप्रकाश विवेक, मुकेश प्रत्युष,, अमिता कुमारी, राहुल राजेश, प्रेम शशांक, गिरीश मिश्र, सुरेश पंडित, शिवदयाल, उर्मिला शिरीष ,संजय कृष्ण और नरेन्द्र पुण्डरीक 

दोआबा
संपादकः जाबिर हुसेन
247 एम आई जी, लोहियानगर
पटना- 800020.
मोबाइल- 09431602575.