दोआबा, अंक- 15



इस अंक में :

शंभु गुप्त : शब्दों के पीलेपन का अतिक्रमण
रामधारी सिंह दिवाकर : कथा-डायरी का अगला पड़ाव
प्रेम कुमार : मर्मस्पर्शी, जीवंत सुरुचिसंपन्न
अवध बिहारी पाठक : ज़ख़्मों का हलफ़िया बयान
श्यासुंदर घोष : जाबिर हुसेन का कथा-शिल्प
पल्लव : जिंदा होने का सबूत देती कथाएं
मनोज मोहन : कल्पना और यथार्थ का मिटता फ़र्क
कल्पतरु एक्सप्रेस : कथा के शिल्प में भूमिगत डायरी
अमरनाथ : बेचैन करने वाली डायरी

दरीचा

चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी : युग बदला : तीन

कहानी

मनमोहन सरल : जमी हुई झील
मीरा कांत : लंबी औरत
श्यामसुंदर घोष : सर्द रात और सख़्त जात
दिनेशचंद्र झा ’प्रवासी’ : आग की वैतरणी
सत्यम श्रीवास्तव : जस्टिस
विनोद कुमार : अश्लील पन्ने डायरी के

कविता

कर्मानंद आर्य की बारह कविताएं,
विस्वावा शिंबोर्स्का की पांच कविताएं
अशोक सिंह की चार कविताएं

बहस

विनोद रिंगानिया / जीतेन्द्र वर्मा / उर्मिला शिरीष / मनोज मोहन


­  टाइम्स आफ़ इंडिया में कांचा इलैया ने स्वाती माथुर से अपनी बातचीत में कहा - ’दलित समाज में बौद्धिक चेतना का विकास बहुत बाद की घटना है। इसके लिए जिस परिष्कृत शिक्षण की जरूरत है, उसका हमारी राजनीतिक धारा में नितांत अभाव है। उदाहरण के लिए, कर्पूरी ठाकुर जैसा एक लगभग निरक्षर नाई (ऎन आलमोस्ट इल्लिट्रेट बार्बर) बिहार का मुख्यमंत्री बन गया था.।
’दोआबा’ के ताज़ा अंक में संपादक जाबिर हुसेन का, कांचा इलैया की इस टिप्पणी पर वैचारिक प्रतिवाद...