दोआबा, अंक- 17


’दोआबा’ : प्रगतिशील कवि अखतर पयामी के आत्मसंघर्ष को रेखांकित करता विशेषांक 

अखतर पयामी की कविता मेहनतकश आदमी के यथार्थ का आईना है। आईना इसलिए कि जब आदमी का आत्मसंघर्ष समाज में पूरी तरह रेखांकित नहीं हो पाता है तो कवि अपनी कविता को आदमी के आत्मसंघर्ष का आईना बना देता है। यही सबकुछ अपने समय के प्रगतिशील कवि अखतर पयामी ने अपने कविजीवन में किया है। वरिष्ठ साहित्यकार और ‘दोआबा’ के संपादक प्रो. जाबिर हुसेन ने ‘दोआबा’ (दोआबा प्रकाशन, 247 एम आई जी, लोहियानगर, पटना – 800020/ मूल्य : 50 रुपये / पृष्ठ : 234) का सतरहवां अंक अखतर पयामी की कविता पर केंद्रित किया है। अखतर पयामी लगभग सारी कविता में अपनी काव्यानुभूति आम आदमी के जीवनसंघर्ष से आरंभ करते हुए अपनी अनूठी काव्य भाषा और काव्यकशैली पर लाकर समाप्त करते हैं। अखतर पयामी की काव्य-संवेदना का ताप इतना गहरा और भारी है कि इनकी कविता को पढ़कर हमारे भीतर एक अलग तरह की ऊर्जा का संचार होता हुआ महसूस होता है। अखतर पयामी उर्दू के कालजयी कवि फैज अहमद फैज और हिन्दी के कालजयी कवि नागार्जुन की मार्क्सवादी परंपरा के कवि हैं। यही कारण है कि ‘दोआबा’ का यह अंक प्रगतिशील आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में अखतर पयामी के साहित्यिक योगदान को न केवल विस्तारित करता है बल्कि निर्णायक रूप से हिन्दी पाठकों के बीच अखतर पयामी के विचारों को स्थापित भी करता है। इस अंक में कवि की दुर्लभ तस्वीरें भी छापी गई हैं। इस अंक में अखतर पयामी की नाट्यकविता ‘तारीख’ भी छापी गई है। इस कविता को ‘मौनुमेंटल’ रचना का दर्जा हासिल है। अखतर पयामी का निधन 8 अप्रैल, 2013 को हो गया परंतु ‘दोआबा’ के संपादक प्रो. जाबिर हुसेन इस अंक के बहाने प्रगतिशील आंदोलन का इतिहास लिखने वाले आलोचकों से एक सवाल करते दिखाई देते हैं कि ‘प्रगतिशील आंदोलन का इतिहास लिखने वाले आलोचकों और पत्रिकाओं के विशेषांक निकालने वाले संपादक अक्सर इस तहरीक को कुछ खास संज्ञाओं तक सीमित कर देते हैं। वो न तो गहराई से अध्ययन करते हैं और न पत्रिकाओं के पुराने अंक खंगालते हैं। यही वजह है कि उनकी किताबें अधूरेपन और तिश्नगी का एहसास कराती हैं। क्या इतिहासकारों को अपनी भूल सुधारने की जरूरत नहीं ।’

‘दोआबा’ के इस अंक में प्रो. जाबिर हुसेन का संपादकीय ‘हम तुम्हें कहां तलाश करें’ जहां पठनीय है, वहीं मनमोहन सरल और कर्मेन्दुं शिशिर का संस्मरण, शंभुगुप्त का अज्ञेय पर तो मधुरेश की गोपाल राय पर खास सामग्री के अलावे हरेप्रकाश उपाध्याय की कविताएं तथा मुशर्रफ आलम जौकी, रामाशंकर कुशवाहा, संजीव ठाकुर की समीक्षाएं भी छापी गई हैं।
   
                                               -कवि शहंशाह आलम के फेसबुक वाल से  

दोआबा के इस अंक में-

अखतर पयामी की 48 नज़्में..

दरीचा में..
मनमोहन सरल : चकत्ते-भर धूप की प्यास
कर्मेन्दु शिशिर : मुंगेर की स्मृतियां

कविता

हरे प्रकाश उपाध्याय

आलेख
शंभु गुप्त : अप्रत्यक्ष के मार्फ़त प्रत्यक्ष
मधुरेश : पचास साल लम्बी सड़क

समीक्षा/ संवाद
मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी
एक संग्रह वादिये-हिकायत से
रामाशंकर कुशवाहा/ संजीव ठाकुर
अवध बिहारी पाठक
चुनौतियां झेलती एक पत्रिका
मुकेश प्रत्युष/मनमोहन सरल/ कासिम खुर्शीद/ श्रवणकुमार गोस्वामी