दोआबा : अंक - 13




इस अंक में : 

रघुवीर सहाय : भाषा की पूजा
कथा- डायरी : जाबिर हुसेन

दरीचा :
चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी : युग बदला
पीयुष नारायण : एक कैंसर सर्वाइवर की डायरी

उपन्यास अंश :
रामधारी सिंह दिवाकर : केंकड़े के बच्चे
उषाकिरण खान :बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे
मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी : उड़ने दो ज़रा
निलय उपाध्याय : पहाड़

कहानी :
तबस्सुम फ़ातिमा : बेनिशां
शाइस्ता फ़ाखरी : कुंवर फ़तेह अली
मंगलमूर्ति : बूढ़ा पेड़


कविता :
पंकज सिंह
सुधीर सक्सेना
प्रियदर्शन
राजेन्द्र नागदेव
कुमार विक्रम
भारत भूषण आर्य

समीक्षा / संवाद : रामधारी सिंह दिवाकर / योगेन्द्र / सीमांत सोहल / मनमोहन सरल / नासिरा शर्मा / क़ासिम खुर्शीद / सुरेन्द्र किशोर / प्रभात खबर

... पूरा का पूरा रचनात्मक साहित्य अंतत: कुशल ढंग से बोला गया झूठ ही तो है
जो न होता तो ज़िंदगी के सच हमारी समझ में कैसे आते
कायदे से सच को झूठ का आभारी होना चाहिए
झूठ है इसलिए सच का मोल है।
-अंक में प्रियदर्शन !
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संपादक: जाबिर हुसेन,
247 एम आई जी, लोहियानगर,
पटना - 800 020.
फ़ोन - 0612 2354077

दोआबा : अंक 12,



जिंदा होने का सबूत: जाबिर हुसेन

‘कितने गहरे हैं जख़्म ?’
नुकीले जूते पहने आदमी ने कारिंदों से पूछा ।
‘इतने कि हम नाप नहीं सकते।’
‘छोड़ देने पर ज़ख़्म भर तो नहीं जायेंगे?’
वो पूरी तरह मुतमइन होना चाहता था।
‘लगता नहीं, पर आप कहें तो हम इसे कुछ और गहरा कर सकते हैं।’

आंखों का इशारा पाकर वो बेहोश,  नीममुर्दा आदमी के सीने पर अपने ज़हरीले असलहों का दोबारा इस्तमाल करने लगे।
बदन से रिसने वाला खून फिर से धार बनकर गीली ज़मीन पर जज़्ब होने लगा।
एक पल के लिए बेहोश आदमी के जिस्म में थरथराहट-सी पैदा हुई।
फिर जैसे सब कुछ ठहर गया हो।

आसमान से अंगारे बरस रहे थे।
जब कि ये अंगारों के बरसने का मौसम नहीं था।
गलियां सुनसान थीं। राहगीर रास्ता भूल बैठा थे।
पेड़ों की शाख़े साकित थीं।
पत्तियां अपनी हरियाली खो रही थीं।

गली के आखिरी कोने पर हज़ार बरस पुरानी हवेली के खंडहर की एक खिड़की  न मालूम कबसे नीम-वा थी। एक साया था कि खिड़की पर लगी लोहे की तीलियां पकड़े गली की तरफ़ नज़रें जमाये था।
अपनी हथेलियां उसने दुआ के अंदाज़ में आसमान की तरफ़ फैला रखी थीं।

नुक़ीले जूतों वाला आदमी अब पूरी तरह मुतमइन था।
गली के रेतीले पत्थरों के बीच, बेहोश आदमी के जिस्म में कोई हरकत नहीं थी।

‘है कोई इस आदमी के जिंदा होने का सबूत बाक़ी?’
‘नहीं!’
चारों तरफ़ से कारिंदों की आवाज़... आवाज़ नहीं, गूंज उभरी।

हज़ार बरस पुरानी हवेली के खंडहर की खिड़की में लोहे की शिकस्ता तीलियां पकड़े कोई साया अब भी दुआइया अंदाज में अपनी हथेलियां आसमान की तरफ़ फैलाये खड़ा था।

‘अब... इसे खाई में फेक आओ।’
नुकीले जूतों से आवाज़ आई।

एक ने लाश अकेले अपने कंधे पर उठाई और खाई की तरफ बढ़ा।
चार कदम ही चला होगा शायद कि उसकी चीख़ सुनाई पड़ी।
लाश में थरथराहट के साथ हरकत हुई।
जख़्मी हाथ की उंगलियों में दबी क़लम की नोक ने लाश उठाने वाले की गर्दन में गहरा जख़्म़ कर दिया था।
खून की लकीरें उसकी नीम-फ़ौजी पोशाक को गीला कर रही थीं।

हज़ार बरस पुरानी हवेली के खंडहर की खिड़की पर कोई साया मौजूद नहीं था!
                           
                                                                                                             - जाबिर हुसेन

इस अंक में:
दरीचा: मनमोहन सरल, रंजना श्रीवास्तव एवं सपना चमडि़या।
कविता: शहंशाह आलम, अमित कल्ला एवं मनोज मोहन।
कहानी: अजित कुमार व मंगलमूर्त्ति।
बहस: राजेश राहुल
विशेष: चर्चित लेखिका नासिरा शर्मा का सम्पूर्ण उपन्यास ‘अजनबी जज़ीरा’ पूरे सौ पेज़ में...

संपादक: जाबिर हुसेन,
247 एम आई जी, लोहियानगर,
पटना - 800 020.
फ़ोन - 0612 2354077

दोआबा, अंक 11




दोआबा के इस अंक में - 

समाज-दर-समाज
हाशिए पर ख़ानाबदोश: जाबिर हुसेन
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद: दस्तावेज़
मीडिया और आदिवासी: हरिराम मीणा


कविता:
विमल कुमार
किरण अग्रवाल
राजेन्द्र नागदेव
आर. चेतनक्रांति
पूनम सिंह
राहुल राजेश
अरविन्द श्रीवास्तव
शिवनारायण
नरेन्द्र पुण्डरीक

कहानी:
देवेन्द्र सिंह
कमलरंगा

आत्मगत:
मधुरेश से पल्लव की बातचीत
मंगलमूत्र्ति: कुछ मैं कुछ वे

संवाद:
हरिराम मीणा/ममता कालिया/ज्ञानप्रकाश विवेक/अरविंद श्रीवास्तव/हितेश कुमार सिंह

... प्रेम क्या होता है इसका भी अनुभव नहीं था
माँ डोलती रही पिता की ही सांसों में पूरी उम्र
खाती रही हिचकोले और
असरहीन होकर पिता जीते रहे अपनी उम्र
मां और पिता के इस समय के बाद
आया मुझ जैसे लोगों का समय
जिसमें समय की धूप को
हम तक रोके रहीं पिता की छायाएं ...
                       - नरेन्द्र पुण्डरीक

साझे सपनों को साकार करता 'दोआबा' अंक - 10



    'दोआबा'  के इस अंक में  कविता एवं कहानियों में सिएथल, मीरा कुमार, स्नेहमयी चैधरी, सोनिया सिरसाट, राजेन्द्र नागदेव, राजकुमार कुम्भज, रामकुमार आत्रेय, सुशील कुमार, अशोक गुप्त, भारत भूषण आर्य और ज्ञानप्रकाश विवेक सम्मलित हैं। मीरा कांत का एकल नाटक- गली दुल्हनवाली, आत्मगत में मधुरेश और मनमोहन सरल का आलेख - भारत की आत्मा के चितेरे थे हुसेन के साथ संवेदना व वैचारिकता से पूर्ण संपादक जाबिर हुसेन के संपादकीय- ... मैं तुम्हारे शहर आऊँगा, सोहा, फिर आऊँगा... गहन सूक्ष्मता संजोए यथार्थ व संवेदनाओं का खूबसूरत कोलाज है।
    इस अंक में प्रकाशित मीरा कुमार  की कविता ‘साझा सपने’ की एक बानगी-
    है तुम्हारी पलकों पर इन्द्रधनुष
    उसके रंग मेरी आंखों में तैर रहे
    तुममें और मुझमें
    ये सपनों की कैसी साझेदारी है
    ...........
    ........      - अध्यक्ष, लोक सभा, नई दिल्ली।

दोआबा / संपादकः जाबिर हुसेन
सी-703, स्वर्ण जयंती सदन, डा बी डी मार्ग, नई दिल्ली 110 001.
मोबाइल- 09868181042.