... खेल शायद ख़त्म हो चुका है! दोआबा- 9 से -

अपनी बात
उसने फ़ातेहाना अंदाज़ में मेरे हाथों की तरफ़ देखा, जो हथकडि़यों से जकड़े हुए थे। फिर उसने मेरे पैरों पर नज़र डाली। वो बेडि़यों में थे। एक बार उसने मेरे होंठ टटोले, शायद सिर्फ यह देखने को कि इन में कोई हरकत या जुंबिश बची है या नहीं। फिर उसने अच्छी तरह मेरी आंखों में झांका। मुझे लगा, शायद परखने के लिए कि उनमें अब भी कोई सपना तो नहीं पल रहा।
एक घूमती हुई नज़र उसने मेरी गर्दन, और शायद मेरी रीढ़ की हड्डी पर भी डाली। वो अपनी तसल्ली कर लेना चाहता था कि मेरी गर्दन कितने कोण तक उठी या झुकी हुई है। या फिर मेरी रीढ़ की हड्डी क्या अब भी पहले की तरह तनी हुई है।
उसने मेरे कानों को बख़्श दिया। यह जानने की ज़हमत नहीं उठाई कि उनके पर्दे सही-सलामत हैं या नहीं।
मुकम्मल जांच-परख से शायद वो संतुष्ट हो गया था। तभी तो उसने अपने कारिंदों से कहा- ‘पहले हथकडि़यां, फिर बेडि़यां खोल दी जाएं।’
उसकी आंखों के इशारे पर चलने वाले कारिंदों ने हथकडि़यों में चाभी डाली, और मेरे दोनों हाथों को एक-दूसरे से अलग, आज़ाद कर दिया। वर्षों बाद, मैंने अपने हाथ उफर-नीचे हिलाए, अपनी हथेलियां जोड़ीं, और अपनी उंगलियों को एक-साथ फंसा कर देखना चाहा कि इनमें क़लम पकड़ने की ताक़त बाक़ी है या नहीं।
फिर उसके कारिंदों ने लोहे की गर्म सलाख़ों से मेरी बेडि़यां काटीं। मैंने देखा, बेडि़यां काटते वक्त, सलाख़ों से चिंगारियां निकल रही थीं।
हर बार, जब सलाख़ों से तेज़ चिंगारियां निकलतीं, वो चैंक कर एक क़दम पीछे हट जाता।
मुझे याद है, एक बार तो उसने अपने कारिंदों को शक की निगाह से भी देखा-
‘इतनी चिंगारियां कहां से निकल रही हैं। उन्हें फैलने से रोको।’
ग़रीब कारिंदा, हुक्म का गुलाम, उस लम्हा सहम गया था। मैंने खुद महसूस किया, उसके हाथ कांपे थे। पर वो ज़रूर ही संभल गया था।
मेरी बेडि़यां काटने में ज़्यादा देर नहीं लगी। इस बीच, वो खुद वहां मौजूद रहा, अपने सलाहकारों के साथ।
हथकडि़यां खुल गईं, बेडि़यां कट गईं, तो मैं दीवार का सहारा लेकर खड़ा हुआ। मेरे पैर ज़रा देर के लिए लड़खड़ाए। मेरी रगों में, वर्षों से जो खून के क़तरे, आहिस्ता-आहिस्ता, सरक रहे थे, एकबारगी दबाव में आकर उबले। मुझे अपनी रगें फटती महसूस हुईं। मैं थोड़े समय के लिए घबराया। अंधेरे का एक हल्का बादल थोड़ी देर के लिए मेरी आंखों के सामने उभरा। लेकिन मैं शायद संभाल सका था अपने को।
तभी मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी-
‘तुम्हारे हाथ-पैर आज़ाद हैं अब। तुम चल सकते हो, अपने हाथों से अपने काम निपटा सकते हो। लेकिन तुम इस चहारदीवारी से बाहर नहीं जा सकते। मेरे कारिंदे तुम पर नज़र रखेंगे। दूसरे कै़दियों से तुम्हारा कोई संपर्क नहीं रहेगा।’
फिर उसने अपने कारिंदों को इशारा किया।
उनमें से एक ने मेरी आंखों पर काली पट्टी चढ़ा दी। अब मैं पूरी तरह अंध्ेरे की गिरफ़्त में था। कोई मेरा हाथ थामे मुझे अपने साथ बढ़ाए चल रहा था।
एक लंबी दूरी तय करने के बाद मेरी आंखों पर लगी काली पट्टी खोल दी गई। मैंने देखा, यह नई जगह पहले से ज़्यादा खुली, फैली और हवादार थी। यहां रौशनी आने के कई रास्ते थे। उसे रोकने वाली दीवारें नहीं थीं यहां। बिल्कुल नहीं थीं।
मेरे आने से पहले ही वो यहां पहुंच चुका था। मेरी आंखों की काली पट्टी खोली गई, तो सामने मुझे उसका ही चेहरा सबसे पहले दिखाई दिया।
‘यह जगह तुम्हें पसंद आएगी। तुम यहां आराम से रह सकोगे, जब तक तुम हमारी हिदायतों पर चलते रहोगे। मेरी हिदायतें ज़्यादा सख़्त नहीं होंगी। तुम्हें बस अपने होंठ सिले रखने होंगे। तुम किसी से बातचीत नहीं करोगे। हम चाहते हैं, भूल जाओ कि तुम कभी अपने चाहने वालों के सामने, बेख़ौ़फ, अपनी भावनाएं व्यक्त करते थे। तुम्हारी भावनाएं मुझे आहत करती रही हैं। मेरी सत्ता को इन भावनाओं से ख़तरा है। इसलिए, तुम अपनी ज़बान बंद रखोगे, हमेशा के लिए, सदा।’
इतना कहकर वो अपने सलाहकारों के साथ इस नई जगह से चला गया।
उसके चले जाने पर, मैंने इस जगह का जायज़ा लिया। सचमुच, यह जगह अच्छी थी। पहले वाली जगह से इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। जगह-जगह, फूल-पत्तियां थीं, साफ़-शफ़्फ़ा़फ़ पानी के संगमरमरी ़फव्वारे थे। सड़कों के इर्द-गिर्द, हरी-हरी, गद्देदार घास की क़ालीनें थीं। ऊंचे-नीचे मीनारों से बिखरती रौशनी का तिलिस्म था। जगह-जगह, खूबसूरत चेहरों के झुरमुट थे। चेहरों पर बेबाक मुस्कुराहटों का जादू था।
नई जगह, सचमुच, नई थी। बिल्कुल नई। दिलों को अपनी मुट्ठी में बांध लेने वाली जगह!
एक नई दुनिया थी, मेरे लिए, यह जगह। खुशी-खुशी रह सकता हूं मैं इस जगह। जब तक मैं उसकी हिदायतों पर दिलोजान से अमल करता रहूं। मेरे लिए उसने बस एक छोटी-सी शर्त लगाई है, बस एक मुख़्तसर-सी शर्त। मुझे अपने होंठ सिले रखने हैं। अपनी ज़बान बंद रखनी है।
यह नई जगह, दरअसल, एक रंगमंच है। मैं इस रंगमंच का एक अहम किरदार हूं। शायद इस रंगमंच का सबसे पुराना किरदार। मुझ याद नहीं, (मेरे तजुर्बों ने शायद मेरी याददाश्त पर असर डाला हो) मैंने कितनी सदियां इस रंगमंच पर इसी तरह गुज़ारी हैं। हाथों में हथकडि़यां, पैरों में बेडि़यां, आंखों पर स्याह पट्टी, सिले हुए होंठ, बंद ज़बान!
रंगमंच का पर्दा, अभी-अभी, उठा है। खेल जहां  ख़त्म होता है, वहीं से शुरू हुआ है। मैंने अपनी आज़ाद मुट्ठियां भींचीं हैं, हवा में लहराई हैं। मेरे पैरों की झंकार से मंच की सतह पर एक कंपन-सा महसूस हुआ है। मैंने अपनी रीढ़ की हड्डी को किसी जिंदा दरख़्त के मज़बूत तने की तरह सीध किया है। और अपनी गर्दन आसमान की सम्त उठाकर अपने होंठों को हरकत दी है।
अब मेरी आंखों के सामने उसका चेहरा नहीं है।
उसके सलाहकारों, कारिंदों के चेहरे भी नहीं हैं अब मेरे सामने।
मंच पर तेज़ रौशनी फैल गई है।
सामने, हज़ारों-हज़ार की तादाद में, तमाम उम्र के लोग, बेताबी से, तालियां बजा रहे हैं।
खेल शायद ख़त्म हो चुका है!

जाबिर  हुसेन

’दोआबा’ समय से संगत- अंक- 9


इस अंक में:

आत्मगत
मधुरेश : पिता की दुनिया

कविता
नीलाभ, किरण अग्रवाल, अरविंद श्रीवास्तव, राधेलाल बिजधावने, हुस्न तबस्सुम ‘निहां’

उपन्यास अंश
नरेन्द्र नागदेव: एक स्विच था भोपाल में

कहानी
रोहिताश्व: देह का अनहद राग / विनोद रिंगानिया: इज़्ज़त / नरेश कुमार ‘उदास’: यहां तुम्हारा कोई नहीं

संवाद
प्रेम शशांक: अकारण नहीं है यह भ्रम / रणजीत पांचाले: राधेश्याम कथावाचक / संजीव ठाकुर: दोस्ती का पुल / नरेन्द्र पुण्डरीक: जनता का रंग सारे रंगों से ऊपर / श्यौराजसिंह बेचैन: दलित चेतना के दायरे / सुरेश पंडित: सब कुछ ठीक नहीं है / प्रभा दीक्षित: मेरी वोल्टसन क्राफ्ट / इला कुमार: मन के बिंब / दिलीप मंडल: लोकतंत्र, चुनाव और मीडिया

नज़रिया: मनमोहन सरल, मनोज मोहन, आबिद सुरती, विशाल और प्रगतिशील आकल्प।
दोआबा,
संपादक: जाबिर हुसेन
संपर्कः 09431602575., 09868181042.