साहित्य में हमेशा बहस चलती रह्ती है। इससे गुरेज भी नहीं है। हां, यह सही है की इधर लेखकों नें औरतों को ताकतवर बनाने एवं दलितों को उनका हक एवं अधिकार दिलाने को लेकर अपनी लेखनी का पुरजोर इस्तेमाल किया है। जहां तक प्रेमचंद का सवाल है तो इस पर मतभेद है,और यह लंबा खिचेगा, क्योंकि यह साहित्यिक बहस कम, राजनैतिक मुद्दा ज्यादा है
- नामवर सिंह


जब हमारे जीवन-रगों की अवधारणा बदल रही थी, एक नई विचारधारा का प्रवेश धीरे-धीरे हमारे साहित्य में होने लगा था। नागार्जुन के साथ-साथ कुछ अन्य कवियों ने भी लगभग उसी समय रुसी क्रांति की तरह किसी क्रांति का सपना भारत में देखा था और वे लाल सवेरे के लिये प्रतीक्षारत
- इस अंक से