दोआबा- अंक -5, ख़ानाबदोश विशेष-






अंक -5,            ख़ानाबदोश विशेष


ख़ानाबदोश जातियां, जिस रूप में, जिस रंग में, अबतक हमारे साहित्य का हिस्सा बनती रही है, वह भी कम चिंता का विषय नहीं। साहित्य की हमारी पुरानी मान्यताएं धुंधली पड़ रही है। इसमें हमारी आज की सामाजिक जिंदगी का दबाव महसूस नहीं होता। इस दबाव को सघन बनाने और इसे गति देने की जिम्मेदारी अकेले बालकृष्ण रेणके (केन्द्र सरकार द्वरा गठित ख़ानाबदोश एवं अर्द्ध ख़ानाबदोश जनजातियों के राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष रहे हैं) के कधों पर नहीं डाली जा सकती।हमारा साहित्यक समाज भी अपनी बंद आंखें खोले, यह उतना ही जरूरी है। - संपादकीय  से


अंक में प्रकाशित शहंशाह आलम की ख़ानाबदोश लड़कियां शीर्षक कविता-
सारा शाहर प्रतीक्षारत था
कि ख़ानाबदोश लड़कियां लौटेंगी और
नए तमाशे दिखाएंगी
नये मंजर रचेंगी

शहर मे दिन अच्छे थे
धूप भी रोज़ निकल रही थी
आंखों में खूबसूरत ख़्वाब भी
झलक रहे थे
स्कूल जाते नौउम्र लड़कों की

कस्तुरी-सी महकने वाली
ख़ानाबदोश लड़कियां नहीं लौटीं
इस बसंत में इस शहर

जिसका कोई देश न हो
वे क्यों लौट कर आएंगी
फ़िर-फ़िर आपके देश

जब आया था तब मेरी कोई जाति नहीं थी
और जब मै जा रहा हूं तब भी मेरी कोई जाति नहीं है
आकाश को ऐसे ही खुले रहने दो
धरती को भी मत बांधो
तुमने जो बीच-बीच में दीवारें खड़ी कर ली है
उन्हें गिरा दो क्योंकि वह तुम्हीं ने बनाई है
अपने पुरखों के केवल गौरव को लो
उसकी गति का सम्मान करो
उन दिनों को याद करो जब पहिये नहीं थे
पर पूर्वज चलना चाहते थे
अंक से
ख़ानाबदोश विषयक महत्वपूर्ण आलेख एवं इस अंक के रचनाकार:-
जाबिर हुसेन- दिल्ली में ख़ानाबदोश
वीरबाला भवसार- आदिवासी कला आधुनिक कला का श्रोत
अवधेश अमन- अभिशप्त ख़ानाबदोश और भारतीय चित्रकला
श्रुति पाण्डेय- बंजारों की भाषा और उनका लोक साहित्य
पल्लव- राजस्थान के गाड़ी लौहार
रागेय राघव- अहदवाले
मैत्रेयी पुष्पा- अल्मा
भगवानदास मोरवाल- द्वार पर खोद
मणि मधुकर- टीले की धूप
कैलाश बनवासी- लोहा और आग और वे
भीमराव आंबेडकर: ब्रिटिश शासन की पूर्व संध्या का भारत
सुरेश पंडित : आदिम भारत में स्त्री का उपनिवेशीकरण
मैनेजर पाण्डेय: नाटक से राजसत्ता हरदम डरती है
प्रभा दीक्षित: एक मुकम्मल औरत का ख़्वाब
- दोआबा
मूल्य- 100 रू
सम्पर्क:- दोआबा प्रकाशन
247 एम आई जी, लोहियानगर
पटना- 800 020, फ़ोन- 0612 2354077