दोआबा अंक- 3


अंक- 3

दोआबा के पहले दो अंक, जो आपकी नजरों से गुज़रे हैं, वो इस बात की ओर अवश्य संकेत करते हैं कि यह पत्रिका रचनाकारों के प्रति खुला नज़रिया अपनाने की कोशिश कर रही है। जहां तक रचनाओं की स्तरीयता और मानक की बात है, इसको लेकर पठकों के बीच हमेशा द्वन्द्व की स्थितियां पैदा होते रह्ती है। ख़ासकर एक ऐसे समय में, जब साहित्य को जांचने – परखने के पैमाने सिर्फ़ साहित्यिक नहीं रह गये हैं।

दोआबा थोड़े – से लोगों के प्रयास का नतीजा है। रचनाकरों ने अवश्य ही हमारा हौसला बढाया है। जिस दिन रचनाकारों का यह सहयोग मंद पड़ेगा दोआबा अपने - आप बंद हो जायेगा।
बंद होने के लिये इसे किसी दुष्चक्र या श्राप की प्रतीक्षा नहीं करनी होगी।
- संपादक
दुनिया बदलने से स्त्री के रोटी सेकने का क्या संबंध है ? क्या दुनिया तब भी नहीं बदल जाती है, जब वह कोई रोटी तवे पर नहीं पलटती होती है। दुनिया तो रोज और हर क्षण बदलती है। क्या स्त्री का रोटी सेकना बंद कर देने से कोई फ़र्क पड़ेगा ? जया जादवानी का यह कहना भी तर्क संगत नहीं है कि स्त्री वहीं कि वहीं खड़ी है। यदि स्त्री वहीं की वहीं खड़ी रह्ती, तो क्या जया जदवानी लेखक बन सकती थी ?
· कंवल भारती

दूर हो रहे हैं हमारी सभ्यता से कौए
नहीं पूछता कोई कौवे की खैरियत
नहीं ली जा रही कोई नोटिस
चर्चा में नहीं हैं कौए
नहीं हो रही कोई गोष्ठी-कोई सम्मेलन
बयानबाजी भी नहीं हो रही उनके पक्ष में

लाख चिंताओं के बावजूद
आख़िर क्यों नहीं आ रहा
कोई राष्ट्रव्यापी वक्तव्य कौवों के लिये
      - अरविन्द श्रीवास्तव