मैदान मेरा हौसला है, आंगन मेरी ख़्वाहिश - सारा शगुफ़्ता की रचनाशीलता को समर्पित ‘दोआबा’ का यह अंक

                                                                        
                                                                         मैं टूटे चांद को सुबह तक गंवा बैठी हूं
इस रात कोई काला फूल खिलेगा
मैं अनगिनत आंखों से टूट गिरी हूं
मेरा लहू कंकर कंकर हुआ
मेरे पहले क़दम की ख़ाहिश दूसरा क़दम नहीं
मेरे ख़ाक होने की ख़ाहिश मिटी नहीं

ऐ मेरे पालने वाले ख़ुदा
मेरा दुख नींद नहीं, तेरा जाग जाना है
कौन मेरी ख़ामोशी पे बैन करता है
कौन मेरे सुख के कंकर aचुनता है
ये रोज़, ये रोज़ कौन मर जाता है
-सारा


इस अंक के रचनाकार-

मंगलेश डबराल ,शाहिद  अनवर ,विष्णु नागर, किरण अग्रवाल, विजय शंकर, राजेन्द्र नागदेव, भारत भूषण आर्य, आर चेतनक्रांति, विपिन चैधरी, अवधेश अमन, फरीद खां, मधुरेश, मनमोहन  सरल,  राबिन शा  पुष्प, ज्ञानप्रकाश विवेक, मुकेश प्रत्युष,, अमिता कुमारी, राहुल राजेश, प्रेम शशांक, गिरीश मिश्र, सुरेश पंडित, शिवदयाल, उर्मिला शिरीष ,संजय कृष्ण और नरेन्द्र पुण्डरीक 

दोआबा
संपादकः जाबिर हुसेन
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